हृदय चीरती सन्नाटा,
खामोशी जैसे बोल रहे,
कल के पल तो वो पास थे,
आज ना जाने क्यों हमें छोड़ चले।
उनके कहे कुछ बोल,
आज भी गूंजती है कर्ण और मस्तिष्क,
मिले थे कुछ वर्षों पहले ही,
पर पास वो आ गए दिल के क़रीब।
मिलना और बिछरना,
है कैसा नियति का खेल,
दूर चले जाते है कुछ अपने,
छोर छाप अपनापन का दिल में।
कुणाल कुमार