समझ की फेर…

जैसे कभी धूप में,
मन चाहे छाँव की चादर,
वैसे द्विविधा लिए मन,
चाहे तुम्हारे साथ अहसास भरी।

पर ये क्या स्वार्थ है मेरा,
जो चाहता रहता है तुम्हें हर घड़ी,
बस एक अनुभूति ही काफ़ी है तुम्हारी,
मुझे अब जीने के लिए।

शायद अपने दिल की बात,
ना समझा पाऊँगा तुम्हें मैं कभी,
इसीलिए अच्छा होगा अगर,
तुम भूल जाओ मुझे अभी।

मैं कुछ ना बोलूँगा,
जी लूँगा जब तक कर्तव्य चाहेगा मेरी,
फिर छोड़ जाऊँगा दूर कहीं,
वापस म लौटने की क़सम दिल लिए।

दूर से ही सही,
ये दिल चाहता रहेगा तुम्हें ही घड़ी,
पर वापस आने की हिम्मत,
अब ये ना जुटा पाएगा कभी।

चलो अलविदा कह दो मेरे दिल,
उसे जीने दो उसकी हर ख़ुशी,
चाहे तुम प्यार करो उससे पर,
अपने अहसास को ना प्रकट होने दो कभी।

कुणाल कुमार

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