दीपक सा बन मैं,
खुद को जलाता चला गया,
औरों को रोशनी दिखाई मैंने,
खुद डूबा रहा लांछन भरी कालिमा में।
कभी नहीं सोचा खुद का,
ना चाहत बची थी सोचने की,
बस खुद को जलाता चला गया,
औरों की ख़ुशियों के लिए।
हर घड़ी रहे रोशन तुम्हारी,
ख़ुशियों की उजाले से प्रज्वलित रहे दिन,
ग़म की कालिमा रहे दूर तुमसे,
चाहे जलना पड़े मुझे ग़म लिए दिल।
कुणाल कुमार
अति सुन्दर रचना।👌👌💐
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धन्यवाद
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