इंसान के रूप में राक्षस देखा हैं मैंने,
मौत भरी दरिया से तैर निकला है मैंने,
पर आज भी आगे जब बढ़ते हैं मेरे कदम,
उन यादों के दर्द से अश्रु सैलाब बन बह निकलते है मेरे।
जब भी आगे बढ़ने की कोशिश करता है दिल,
यादें की जकड़ बेड़ियाँ बन जाती है,
अपने कहने वाले तो बहुतेरे मिले है मुझे,
पर मुझे समझने वाले नहीं मिला एक भी।
नहीं समझ हैं मुझे,
किस गलती की सजा हैं मिली,
मैंने तो सिर्फ़ इंसानियत देखनी चाही,
हैवानियत से भरा हिस्सा मेरे तक़दीर ने क्यों दी है मुझे।
अब बढ़ते रहना है मेरी नियति,
अपने भूत से दूर बनाना है भविष्य की निधि,
पर इस दौर में अकेला पड़ गया है मेरा मन,
अब ना कोई साथी है और ना रहा कोई हमदम।
कुणाल कुमार
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Wow…I can relate to the poem😌😌
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Thanks
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Wow
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Thanks
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