उम्र की बढ़ती गिनती से,
समझदारी यूँ ही नहीं बढ़ती,
अपने सोच के परिप्रेक्ष्य से,
खुद को समझदार नहीं कहते।
तुम खुद को समझदार समझती हो,
पर ज़रा ये तो बताओ मुझे,
प्यार को समझने की हिम्मत क्यों नहीं की तुममें।
क्यों छोड़ चली उसे पर लिए दिल प्यार उसके लिए।
वैसे तो हो तुम हो हिम्मतवाली,
छोड़ प्यार कर सम्भाला खुद को क्या खूब,
पर यह प्यार कैसा था तुम्हारा,
जो तुम्हारा ख़्याल छोड़ जी रहा खुद की प्यार भरी ज़िंदगी।
तुम्हारी हर निर्णय को मैंने,
अपना समझ अपना बना लिया,
शायद कुछ और उम्र हमें,
मिलन के बिना ही रहना हैं।
हमारे उज्ज्वल भविष्य में,
तुम्हारी सोच की साझा हैं ज़रूरी,
क्योंकि अकेले निर्णय से नहीं मिलती,
जीवन की ख़ुशियाँ सारी।
कुणाल कुमार
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