बेग़ैरत ज़िंदगी लिए इंसान, खुद को खुदा समझ बैठा,
खुदा ने भी इंसान को सोचने के लिए, घर पे बैठा रखा,
खुद के आत्ममंथन के लिए, समय काफ़ी हमें मिलेगा,
जरा खुद का हम सोचंगे, और जरा अपने क़रीबियों का,
थोड़ा हम ख़ुदगर्ज़ी छोड़े, थोड़ा हम अपनों का सोचे,
खुद को हम जी ले एकबार, देकर दूसरों को खुशी,
दर्द का साया ना आए लबों पे, मुश्कान दिखे खुशी के,
इंसानियत के इस ख़तरे को, हमें लड़ना हैं मिलजुल कर,
समय आ गया इंसान, अब बचाना हैं अपना वजूद,अंधकार भरे पथ पर, बिखेरना हैं इंसानियत भरी उजला,
हमें दूर रहकर इस महामारी को बढ़ने से रोकना हैं,
पर साथ साथ होकर समाज के बेहतरी का भी सोचना हैं.
के. के.