बचपन की यादें कुछ खट्टी कुछ मीठी,
ये अहसास साथ निभाए बन मेरी संगिनी,
सोचता हूँ किसे सुनाऊँ अपनी ये कहानी,
जिसमें ना था राजा और ना ही कोई रानी,
ये तो कहानी मेरे बचपन की जो रह गयी थोड़ी अधूरी,
ना मिला परिवार का प्यार था दुलारा में थोड़ी सी कमी,
मम्मी पापा की वो लड़ाई क्यों थी इतनी कठिन,
रोज़ रोज़ की कीच कीच सुनने को लगे अजीब,
मेरा इक आदत सा बन गया था ये रोज़ रोज़ की लड़ाई,
नींद किधर आती थी जब खीज कर पापा ने डाट ना लगाई,
मम्मी भी थी थोड़ी चिर चिरी खीजती थी हर बात पे,
घर की शांति जाने कहा चली गयी हमें छोड़ अकेला घर पर,
इक दिन ऐसा आया जब मम्मी पापा अलग हुए,
दोनो चले खोजने को अपनी ख़ुशी छोड़ अपना ग़म,
सोचता हूँ अगर ना साथ रहना था तो क्यों जन्मा मुझे,
क्यों सोचा सिर्फ़ अपनी ख़ुशी क्या भूल गए मेरी ख़ुशी,
थोड़ा अजीब सा था मेरा मन खोजता रहता रिश्तों का अहमियत,
भूखा तन ना था ज़रूर पर मेरा मन भूखा था प्यार का,
पर कभी अपनी ख़ुशी भूल सोचता हूँ क्या मम्मी या पापा ग़लत थे,
क्या उन्हें हक्क नही थी खोजने की अपनी ख़ुशी या झगड़ना था सही,
शायद उनकी सोच थी सही जो उन्होंने ली,
अलग होकर खोज ली जो अपनी अपनी ख़ुशी,
मुझे इक बात जो उनमें अच्छी लगी,
अलग होने के बाद ना आने दी प्यार में कोई कमी,
अपनी ज़िम्मेदारी से ना मुँह मोड़ा,
मेरा पालक बन हमेशा साथ निभाया,
उन्होंने मेरे हर ज़रूरत को समझ,
अपना जनक होने का फ़र्ज़ निभाया.
के.के.