क्या समझ सकता उसे, जो कभी ना समझ सके हैं मुझे,
मेरी हर उम्मीद को उसने, नहीं समझने की जो क़समें खाई हैं,
जाने क्यों किस द्विविधा में, ईश्वर ने हमें बनाया,
दिल तो दिया हैं हमें उसने, फिर सोचने को क्यों दी दिमाग़ हमें,
जब सोचूँ मैं अपने दिल से, सोच मेरी क्यों हैं मुझे रोके,
क्या दिल से बड़ा दिमाग़ हैं, क्यों नहीं कोई बताता मुझे,
जाने कुछ भी मेरा मन सोचे, करता हूँ मैं अपने दिल की,
पर क्या करूँ हैं ये मेरी मजबूरी, तुम जो हो अपने सोच के ग़ुलाम.
के.के.
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